Tuesday 7 March 2023

व्यथा

लो फिर आ गया
इंतजार था शायद
कुछ कहने की
कुछ सुनाने की
नहीं नहीं
कुछ ऐसी बात नहीं
जिसे उपयुक्त समझा जाए
निर्झर झरने की प्रवृत्ति को
किसने समझा है
अथाह वेग की धारा को 
किसने जाना है
उन्मुक्त हुए आसमान में
पंछियो को किसने समझाया है
अविरल सी है 
व्यथा जीवन की
जिसे समझ न आया है
कोई क्या समझे
जब सभी ने किनारा कर दिया
उत्कंढा की ध्वनि में 
शब्दों के बाण
शायद विलुप्त है
ज्योत्सना की राह की डगर
अभी कठिन है
फिर भी उमंगो की लहर
सरहस दौड़ रही  है
मर्यादा की भूमि
अभी छनी नहीं है
भरभस मन में संवेदनाएँ जीवित है
तोडंना चाहती है जंजीरे
नापाक ये पाषाणो की
पर न जाने किस कौतुहल की
अभी रवानगी बाकी है
आंचल में समेटे 
अपनी व्यथा की कहानी
न जाने किस दिशा में 
वहीं बह जानी है
हृदय कठोरता का आहत करता
फिर भी मुख पर लाली है
भीतर मन में अगाध स्मरण
न जाने कैसे दिन रात है बितते
सांझ गयी दिन रात गयी
यही बाते यहाँ निराली है
कश्मकस की लकीरे में
जज्बात भी मिशाली  है
नही चाहिए बहुत कुछ
थोडे़ की कहानी है
समझ सके वेदना के स्वर को
वही एक निशानी है ।